Thursday, November 14, 2024

अभिज्ञानशाकुन्तलम


दुष्यंत एवं शकुन्तला की कथा

दुष्यंत और शंकुन्तला कि कथा महाभारत में भी मिलती है । परंतु आपके सामने जो कथा है वह संस्कृत के महान कवि कालिदास जी के द्वारा लिखी गयी अभिज्ञानशाकुंतलं का अनुवाद है । कुछ काव्यात्मक परिवर्तनों के आधार पर यह कथा महाभारत कथा से थोड़ी भिन्न है ।
पढिये निश्चय ही आप भारतीय संस्कृति के अनभिज्ञ पहलुओं से अवगत हो पायेंगे ।

एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँच गये। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है। उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, बालिके! आप कौन हैं? बालिका ने कहा, मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ। उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं? उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला - ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये।

शकुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, शकुन्तले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले,
प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा। इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये।

एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा। दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।

महाराज दुष्यंत के सहवास से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, पुत्री! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है। इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई।

महाराज दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, महाराज! शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें।
महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।

जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला।

कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा। यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है।
सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना किया और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये।

महाराज दुष्यंत और शकुन्तला के उस पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ।

ज़िन्दगी ।

ज़िन्दगी
क्या है ये जिंदगी । एक ऐसा सवाल जो सबको परेशान करता है । कोई ढंग से जानता भी नही है फिर भी सबके पास जवाब है । और जवाब होने के बाद भी लोग  परेशान होकर फिर से वही सवाल करने लगते है ।
ज़िन्दगी अनसुलझी पहेली बन कर रह जाती है ।
मेरे हिसाब से जिंदगी कोई समझने की चीज नही है बस जी लो जितना खुल के जी सकते हो । खुल के जीने का भी एक ही तरीका है कि बस दिल में अरमान कम रखो ओर हर एक से हर चीज से लुत्फ उठाया जाए बस जिंदगी आसान हो जाएगी । पैसा हर आदमी कमाता है ज़िन्दगी में दिक्कतें भी हर आदमी के आती है लेकिन हर एक उन दिक्कतों से लड़ नही पाता क्यों कि हर एक को ज़िन्दगी का वो मतलब नही पता । जिससे जिंदगी आसान हो जाए । क्योंकि हम में से अधिकतर लोग थोड़ी सी दिक्कतों के कारण ही जिंदगी और भगवान को कोसने लगते हैं जबकि सारा दोष हमारा अपना ही है। हम ही उन problems के कारण होते हैं और दोष भगवान का ।
हम खुद को अगर थोड़ा सा भी दोषी मानने लगे और ये स्वीकार करने लगे कि इन दिक्कतों का कारण मैं भी हु तो आधी problems तो खुद ही मिट जाएगी ।क्योंकि स्वीकार करने पर ही उन समस्याओं का हल हम खोज सकते है  ।
प्यार हमारी जिंदगी का एक बड़ा ही महत्वपूर्ण अंश है ।
प्यार जब होता है तो इस संसार में सब कुछ अच्छा दिखाई देने लगता है क्योंकि कुछ अच्छा देखने के लिए अच्छी आंखों का होना जरूरी है । ये आंखे मन की आंखे हो सकती है ।
प्यार एक अद्भुत एहसास है इसे शब्दों में बयां नही किया जा सकता । एक पिता का, मां का, पत्नी का , पति का, बहन का, भाई का , मित्र का, । ये रिश्ते प्यार के अहसास के अनुपम उदाहरण है ।क्योंकि ये वही हो सकता है जहाँ स्वार्थ नही हो । जहाँ स्वार्थ हो वहाँ प्यार हो ही नही सकता । असल में प्यार आकर्षण से नही बल्कि भीतरी सौंदर्य से प्रेरित होना चाहिये । शक्ल, सूरत का क्या है आज है कल नही जबकि स्वभाव कभी बदल नही सकता ।
दूसरा जो महत्वपूर्ण बिंदु है हमारे जीवन का वो है हमारी सोच । हमारी सोच समाज के नियमो और रीति रिवाजो से प्रेरित होती है । कुछ हद तक यह सही भी है पर एक सौ प्रतिशत नही क्योंकि समाज एक समूह है और हम अकेले इंडिविजुअल । वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर तो हम अलग है जबकि हमारी सोच हमारी क्षमता और हमारे अनुसार जब तक नही होगी तब तक न तो हम अपना  विकास कर पाएंगे और न ही समाज को कुछ दे पाएंगे ।
हमारी सोच उधार की न होकर खुद की हो । क्योंकि जब हम लोगो से सीखते हैं तब वो ज्ञान उधार के ज्ञान के अलावा कुछ भी नही होता है । हाँ उधार के ज्ञान से काम तो चल जाएगा पर सारी उम्र नही ।
अब यही उदाहरण देखलो
के भगवान को सब ढूंढते फिरते है क्या कभी सोचा है कि दर्शन इतने सारे क्यों है धर्म इतने सारे क्यों है, क्योंकि हर धर्म के लोगो, हर दर्शन के लोगो के सोचने का तरीका भी अलग है । इसलिए सबके भगवान भी अलग अलग है । जो जैसे सोचता है वो भगवान का स्वरूप वैसा ही कर देता है । हर एक का जैसा अनुभव होता है वो भगवान का वही स्वरूप हमारे सामने रख देता है क्या हमने कभी हिम्मत की है के मेरा भगवान कैसा हो नही की क्योंकि हम उस सोच के दायरे से बाहर आने की हिम्मत ही नही रखते । अपने आप को जरा सा भी निडर होकर यदि अपने अंदर के भगवान को देख लें तो नजारा कुछ और हि है। दुनिया की सच्चाई से बहुत दूर असली स्वर्ग हमारे मन के अंदर ही है बस देर है तो थोड़ी देर अपने साथ बैठने की । जिंदगी समझ भी आ जाएगी और  जीनी भी ।
नमस्ते ।